Biography & sahyari of Sahir Ludhianvi
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ज़ज्बे, एहसास, शिद्दत और सच्चाई के शायर साहिर लुधियानवी उन चुनिंदा शायरों में से हैं जिन्होने फिल्मी गीतों को तुकबंदी से निकाल कर दिलकश शेरों शायरी की बुलंदियों तक पहुँचाया। वे पहले ऐसे गीतकार थे जिन्होने संगीतकारों को अपने पहले के लिखे गानो को स्वरबद्ध करने के लिये मजबूर किया।
Sahir Ludhianvi Life History
माहन शायर ( Sahir Ludhianvi )साहिर लुधियानवी का जन्म 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना शहर में ज़मींदार परिवार में हुआ था। साहिल के बचपन का नाम अब्दुल हई था। इस नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। यूं तो ये नाम कुरान में शिद्दत से लिया जाता है किन्तु इस नाम को रखने का कारण कुछ और ही था।
दरअसल पिता के पड़ोस में अब्दुल हई नाम का एक नामचीन राजनितिज्ञ रहता था। साहिर के पिता फजल मुहम्मद की इससे रंजिश थी लेकिन उसके सामाजिक रुतबे के कारण वो उसे कुछ कह नही सकते थे। अतः अपने मन की भड़ास निकालने के लिये उन्होने अपने बेटे का नाम अब्दुल हई रखा। अक्सर वो अपने पड़ोसी को सुनाकर गालियां देते जब वो राजनितिज्ञ पूछता की ये क्या बात है, तो साहिर के पिता कहते कि मैं तो अपने बेटे को गालियां दे रहा हूँ तुमको नही।
इस अजीबो गरीब माहौल में बालक अब्दुल का बचपन बीता। कहने को तो साहिर का जन्म ज़मींदार के घर हुआ लेकिन पिता की अय्याशी ने सब तबाह कर दिया था। पिता फजल मोहम्द ने 12 औरतों से विवाह किया था। साहिर 11 वीं बेगम सरदार के पुत्र थे और खानदान के इकलौते चिराग क्योंकि बाकी बेगमों से कोई औलाद नही हुई थी।
सरदार बेगम फजल की हरकतों को बर्दाश्त नही कर पाईं और उन्होने तलाक ले लिया और अपने भाई के पास रहने लगी। क्योंकि वो अपने बच्चे को इस माहौल से निकालकर उंची तालीम देना चाहती थीं। चार साल के साहिर से जब जज ने पूछा कि किसके साथ रहना चाहते हो तो उन्होने कहा अम्मी के साथ।
अलग हो जाने पर भी सरदार बेगम को डर रहता था कि कहीं फजल के गुर्गे बेटे अब्दुल को उठा न लें जाये इसलिये वो हर पल अपने बेटे को पास ही रखती या अपने भाई के देख-रेख में कहीं भेजती।
शिक्षा
बचपन की शिक्षा शिक्षा स्कूल में हुई तो साहिर मुस्लिम तहजीब से कुछ दूर हो गये और उनके अधिकतर दोस्त भी सिख या हिन्दू लड़के ही थे। उनका बचपन बहुत दिलचस्प रहा वो बचपन में अजीबो-गरीब जिद्द करते थे। दूध पीने में बहुत आनाकानी करते, जब दूध दिया जाता तो कहते इसमें पानी मिलाओ और जब पानी मिला दिया जाता तो कहते इसे अलग अलग करो। उनकी अम्मी उन्हे आंख बंद करने को कहती और दो गिलास सामने रखती जिसमें एक में पानी और दूसरे में दूध रहता, अब्दुल समझते कि पानी अलग हो गया और दूध पी लेते थे।
शायरी में रूचि
बचपन में एकबार एक मौलवी ने कहा कि ये बच्चा बहुत होशियार और अच्छा इंसान बनेगा। ये सुनकर मां के मन में सपने जन्म लेने लगे कि वह अपने बेटे को सिविल सर्जन या जज बनायेंगी। जाहिर है अब्दुल का जन्म जज या सिविल सर्जन बनने के लिये नही हुआ था। विधी ने तो कुछ और ही लिखा था। बचपन से ही वो शेरो-शायरी किया करते थे और उनका शौक दशहरे पर लगने वाले मेलों में नाटक देखना था। साहिर अपनी मां को बहुत मानते थे और तहे दिल से उनकी इज्जत करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि मां को कोई दुःख न हो।
उस समय के मशहूर शायर मास्टर रहमत की सभी शायरी उस दौरान उन्हे पूरी याद थी। बचपन से ही किताबे पढने का और सुनने का बहुत शैक था और यादाश्त का आलम ये था कि किसी भी किताब को एक बार सुन लेने या पढ लेने पर उन्हें वो याद रहती थी। बड़े होकर साहिर खुद ही शायरी लिखने लगे। शायरी के क्षेत्र में साहिर, खालसा स्कूल के शिक्षक फैयाज हिरयानवी को अपना उस्ताद मानते थे। फैयाज ने बालक अब्दुल को उर्दु तथा शायरी पढाई। इसके साथ ही उन्होने अब्दुल का तवारुफ साहित्य और शायरी से भी कराया।
साहिर के गीतों में तत्कालीन समाज की समस्याओं तथा देश के आम इंसान की दयनीय स्थिती का इतना सशक्त चित्रण देखने को मिलता है कि वह दर्शकों के दिल को छू जाता है। वो जिंदगी का फलसफा अपने गीतों मे आसानी से बंया कर देते थे। प्यासा फिल्म का गाना “जिन्हे नाज है हिन्द पर वे कहाँ हैं” गीत सुनकर जवाहर लाल नेहरु जी की आँखे नम हो गई थी। रुह को छू जाने वाली शायरी उस दौर में हर जवां दिल में धड़कती थी। उनकी शायरी अंधेरों में डुबे लोगों के लिये आशा के सूरज के समान है। एक ही मजहब का संदेश देने वाली उनकी शायरी इंसानियत को बंया करती है।
रोचक प्रसंग जिसने अब्दुल को साहिर बनाया
अब्दुल से साहिर लुधियानवी बनने का भी किस्सा बहुत रोचक है, बात 1937 की है, जब वे मैट्रिक परिक्षा की तैयारी कर रहे थे। पाठ्य पुस्तक पढने के दौरान उन्होने इकबाल की उस नज़म को पढा जो 19 वीं सदी के महान शायर दाग दहलवी की प्रशंसा में लिखी गई थी। वो पंक्तियां इस प्रकार थी……चल बसा दाग, अहा! मय्यत उसकी जेब-ए-दोष है
आखिरी शायर जहानाबाद का खामोश है
इस चमन में होंगे पैदा बुलबुल-ए-शीरीज भी
सैकडों साहिर भी होगें, सहीने इजाज भी
हुबहु खींचेगा लेकिन इश्क की तस्वीर कौन
इस शायरी में अब्दुल को साहिर शब्द बहुत पसंद आया , जिसका शाब्दिक अर्थ हेता है जादुगर। अब्दुल ने साहिर के आगे अपने जन्म स्थान का नाम रखकर अपना नया नाम साहिर लुधयानवी बना लिया।
काव्य संग्रह
साहिर का पहला काव्य संग्रह तल्खियां बहुत लोकप्रिय हुआ। उसकी सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, उनके जीवनकाल में 25 संस्करण केवल दिल्ली से निकल चुके थे, जिनमें 14 हिंदी में थे। इसके अलावा रूसी, अंग्रेजी तथा अन्य कई भाषाओं में इसका संस्करण निकल चुका था। पाकिस्तान में तो आज भी ये आलम है कि कोई भी प्रकाशक जब नया प्रकाशन शुरु करता है तो पहली प्रति तल्खियां की ही प्रकाशित करता है।
मशहूर शायर कैफी आजमी ने साहिर तथ तल्खियां की तारीफ में कहा-
मैं अक्सर यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि मैं साहिर को उनकी शायरी के जरिये जानता हूँ या फिर उनकी शायरी को खुद उनके जरिये से; मैं यह कबूल करता हूँ कि इस बारे में मैं अभी तक किसी नतीजे पर नही पहुँचा हूँ। ऐसा महसूस होता है कि, साहिर ने अपनी शख्सियत का जादू अपनी शायरी में उतार दिया है और उनकी शायरी के जादू का अक्स उनकी शख्सियत में हूबहु उतर आया है। तल्खियां पढते समय ऐसा महसूस होता है कि शायर की रुह अपनी बुलंद तथा साफ आवाज में बात कर रही है।
साहिर की शौहरत तो शायरी की वजह से खूब बढ रही थी किन्तु शौहरत से पेट नही भरता। शायरी के चक्कर में पढाई भी बीच में छूट गई थी। मां तथा खुद का पेट भरने के लिये काम की तलाश करना हिमालय की ऊँचाई जैसा विशाल था। इसी दौरान उन्हे ‘अदब ए लतीफ पत्रिका में संपादकी का काम मिला जहाँ शोहरत तो खूब मिली लेकिन 40 रूपये मेहनताने में घर चलाना मुश्किल था।
फ़िल्मी सफ़र का आगाज़
साहिर का सपना था फिल्मो में गीत लिखने का। 1945 में उन्हे ‘आजादी की राह पर‘ फिल्म में कुछ गाने लिखने को कहा गया, साहिर ने तनिक भी देर न करते हुए हाँ कर दी और मुम्बई आ गये तथा अपने साथ हमीद अख्तर को भी ले आये। साहिर ने उनके लिये हिन्दुस्तान कला मंदिर में काम भी ढूंढ लिया।
1946 का जनवरी महीना वो यादगार महीना रहा जब उन्होने मुम्बई की तरफ रुख किया और जिसने उनकी भावी जिंदगी का रुख ही बदल दिया था। 1946 में साहिर जब मुम्बई आये तो उन्हे मजरूह सुल्तान पूरी, कैफी आजमी, मजाज लखनवी जैसी महान हस्तियों के सम्पर्क में आने का अवसर भी मिला।
मज़हबी दंगे
इसी दौरान पंजाब में हिंसा की खबर साहिर को मिली, वो रात भर सो न सके। पंजाब की बदनुमा हिंसा से व्यथित साहिर का गुस्सा उनकी नज़म में दिखता है।
ये जलते हुए घर किसके हैं , ये कटे हुए तन किसके हैं
तकरीम के अंधे तुफा में , लुटते हुए गुलाब किसके हैं
ऐ सहबर मुल्क ओ कौम बता, ये किसका लहु है और कौन मरा
इस हिंसा और नफरत के बीच आजादी मिली। तमाम प्रगतिशील लेखक तथा कवी मुम्बई में कौमी एकता की अपील करने के लिये सड़कों पर उतर आये थे। मजहब के नाम पर हुए इस बंटवारे से आहत होकर साहिर ने कहा था कि, नफरत की बलिवेदि पर मिली ये आजादी खोखली है और ये देश के लिये नई चुनौतियां खड़ी कर सकता है।
साहिर की मां उस समय लुधियाना में ही थीं, लिहाज़ा उनकी सुरक्षा की दृष्टी से साहिर उन्हे लेने लुधियाना चल दिये। सफर में हिंसा के मंजर को उन्होने भी देखा और 11 सितंबर 1947 को आकाशवाणी पर उन्होने मजहबी हिंसा को इस तरह बयां किया….
साथियों! मैने बरसों तुम्हारे लिये
चांद, तारों, बहारों के सपने बुने
आज लेकिन मेरे दामन-ए-चाक में
गर्द-राहे सफर के सिवाय कुछ नही
मेरे बरबात के सीने में नगमों का दम घुट गया है
ताने चीखों के अंबार में दब गई हैं
और गीतों के सुर हिचकियां बन गये हैं
मैं तुम्हारा मुगन्नी हूं , नगमा नही हूं
और नगमें की तखलीक का साज-ओ-सामान
साथियो! आज तुमने भस्म कर दिया है ….
इसी बीच उनकी मां को एक दोस्त अपने घर लाहौर ले गया था। जब साहिर लाहौर में मां को सुरक्षित देखे तो उनकी जान में जान आई। मजहबी दंगो से लाहौर के हालात ऐसे हो गये थे कि मानों किसी ने शहर की रूह को ही निकाल दिया हो।
मुफलिसी के दिन
वहाँ के माहौल में मुम्बई भी लौटना मुमकिन नही था। अतः वहीं मन मारकर सवेरा पत्रिका में संपादक के रूप में काम करने लगे। संपादक के रूप में वो सरकार की तीखी आलोचना करते थे।उन्होने ‘आवाज-ए-आदम‘ नज्म में तो सरकार को ये चेतावनी दे दी कि, यदि उसने अपने रवैये में परिवर्तन नही किये तो जनता उसे उखाड़ फेंकेगी। जाहिर है ये भड़काऊ शायरी सरकार को पसंद नही आई और उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया।
साहिर को इस वारंट का पता चल गया था, वो छिपकर दिल्ली पहुँच गये और अपने दोस्त प्रकाश पंडित की मदद से माँ को भी दिल्ली बुलवा लिये। संघर्ष का दौर बरकरार रहा फिल्मों में गीत का अवसर नही मिल पा रहा था। मुफलिसी के इस दौर में माँ की चूड़िया बेचनी पड़ी और गुजर बसर के लिये पटकथाओं की साफ कॉपियां भी बनानी पड़ी लेकिन वे कभी भी निराश नही हुए। अक्सर वे मुस्कुराते हुए कहते कि-
यार ये मुम्बई शहर है, बाहर से आये लोगों से दो साल जद्दोज़हद मांगता है और इसके बाद बड़े प्यार से गले लगाता है।
सचिन देव वर्मन से मुलाक़ात और अच्छे दौर की शुरुआत
आखिरकार एक खुशनुमा सुबह भी आई जो जीवन पर्यन्त रौशन रही। उन दिनों सचिन देव वर्मन नये गीतकारों की खोज कर रहे थे। साहिर बर्मन दा से मिलने उस होटल में पहुँच गये जहाँ वे रुके हुए थे। वहाँ डू नॉट डिस्टर्ब का बोर्ड लगा हुआ था लेकिन साहिर इसकी परवाह किये बिना सीधे उनके रूम में चले गये और अपना परिचय देते हुए उन्हे अपने आने का मकसद बता दिये। उनके विश्वास को देखते हुए बर्मन दा ने उन्हे एक धुन सुनाई और उसपर गीत लिखने को कहा। साहिर ने कहा कि आप हारमोनियम पर धुन बजाइये मैं गीत सुनाता हूं। साहिर ने उस धुन के साथ ही जो गीत गाया वो इस प्रकार था…
ठंडी हवाएं, लहरा के आयें, रुत है जवां, तुम हो जवां, कैसे भूलाएं, गीत सुनकर बर्मन दा तो खुशी के मारे उछल पड़े। वे साहिर को उस जमाने के मशहूर निर्माता निर्देशक अब्दुल रशीद से मिलाने ले गये। नौजवान साहिर की जिंदगी का ये सबसे खुशनुमा लम्हा था। ये गाना नौजवान फिल्म में 1951 में लता मंगेशकर द्वारा गाया गया था।
इस तरह साहिर और बर्मन की जोड़ी इतिहास की अत्यधिक लोकप्रिय जोड़ी बन गई। 1951 से 1957 तक इस जोड़ी ने 15 से भी ज्यादा फिल्मों में हिट गाने दिये। उस समय साहिर का सीधा मुकबला शंकर-जयकिशन तथा शैलेन्द्र और नौशाद के बीच में था। साहिर ने अपने नगमों के जरिये मानवीय मन की वेदना को अभिव्यक्त किया और इसी के साथ क्रांतिकारी गीतों एवं रोमांटिक गीतों से फिल्म संगीत को लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुँचाया।
लोकप्रियता
साहिर की लोकप्रियता का आलम ये था कि, वो उन दिनों लता मंगेस्कर के मेहनताने से अपना मेहनताना एक रुपया ज्यादा माँगते थे, लिहाज़ा लता जी साहिर के लिखे गीत को गाने से मना कर देती थी।
साहिर और बर्मन दा की जोड़ी 1959 में टूटने के बाद भी साहिर के पास फिल्मों की कमी नही थी। उन्होने संगीतकार नौशाद, एन दत्ता और खय्याम के साथ भी काम किया। चोपड़ा बंधुओं द्वारा बनाई गई फिल्मों में ताउम्र उनके गाने फिल्माए गये थे। 1956 में बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर के गानों का सिलसिला जो शुरु हुआ था, वह लंबे समय तक चला।
बी. आर. चोपड़ा के छोटे भाई यश चोपड़ा तो कॉलेज के ज़माने से ही साहिर की शेरो-शायरी के फैन थे। जब 1950 में वे मुम्बई आये तो बड़े भाई ने पूछा कि किससे मिलना है तो, उन्होने साहिर से मिलने की इच्छा जाहिर की थी न की कोई हीरो या हिरोईन से। जब यश चोपड़ा ने अपनी पहली फिल्म दाग बनाई तो उसमें लिखे सभी गीतों का मेहनताना साहिर ने लेने से मना कर दिया था।
बहुत जिद्द करने पर यही कहा कि जब फिल्म हिट हे जायेगी तो जो तुम्हे ठीक लगे दे देना। बी.आर. चोपड़ा के ही समझाने पर लता मंगेशकर वापस साहिर के गीतें पर गाने लगी थीं। साहिर के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि, 1960 के पूरे दशक में उन्होने उस समय के मशहूर संगीतकारों के साथ काम को एहमियत न देते हुए नये संगीतकारों के साथ काम किया। साहिर ऐसे पहले गीतकार थे जिनका नाम रेडियो से प्रसारित फरमाइशी गानों में दिया जाता था। उन्होने ही गीतकारों के लिये रॉयलटी की भी व्यवस्था कराई।
अमृता प्रीतम से प्रेम
साहिर की निजी जिंदगी में प्यार कभी परवान न चढ सका। ग्लैमर तथा शौहरत की दुनिया में रहने के बावजूद वे कभी किसी लड़की को जीवन संगनी नही बना पाये।
कॉलेज के दौरान महिंदर और ईशार के संग असफल प्यार का जिक्र उनकी काव्य संग्रह तल्खियां में मिलता है। महान पंजाबी कवित्री अमृता प्रीतम के प्यार में साहिर गिरफ्त हुए थे। ये एकतरफा प्यार नही था। अमृता प्रितम ने भी इसे कबूल किया है। बंटवारे के बाद जब साहिर मुम्बई में बस गये थे और अमृता दिल्ली में तब भी अमृता प्रीतम अपनी कहानियों और कविताओं के माध्यम से अपने दिल की बात साहिर तक पहुँचाती थीं। साहिर जैसे मशहूर गीतकार तथा उम्दा इंसान की मोहब्बत का परवान न चढना एक अजीब ही बात लगती है।
जावेद अख्तर का कहना है कि, “साहिर की माँ उनकी दुनिया थीं और जब किसी की माँ उस इंसान के जीवन में इतनी एहमियत ले लेती है , तो फिर वह किसी और औरत के बारे में सोचने को पाप समझने लगता है। शायद जब भी उनका किसी और से रिश्ता जुड़ता तो वह अपने आपको माँ का गुनाहगार समझने लगते थे।”
शादी ना करने पर
एकबार साहिर ने खुद इस विषय में कहा था कि, ‘मैं विवाह की संस्था के खिलाफ नही हूं, लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है , मैने कभी शादी करने की जरूरत महसूस नही की, मेरी राय में औरत और आदमी का रिश्ता केवल पति-पत्नी तक सीमित नही रह सकता। यह उसके अपनी माँ तथा बहनो के प्यार तथा स्नेह से भी जुड़ा हो सकता है।” साहिर ने ताउम्र अपनी माँ तथा दो ममेरी बहनों का ख्याल बहुत ही शिद्दत से रखा था।
सम्मान
फिल्म ताजमहल के लिये 1964 में उन्हे फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया था। 1976 में कभी-कभी फिल्म के गीतों के लिये उन्हे पुनः फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजा गया था। उन दिनों ये अवार्ड फिल्म जगत का एकमात्र मशहूर अवार्ड था जिसे पाने के सपने सभी देखते थे। 1971 में भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया था।
निधन
उनकी जिंदगी में एक ऐसा दौर भी आया जिससे वो धीरे-धीरे डूबते चले गये। 1976 में उनकी दिल अज़ीज अम्मी अल्लाह को प्यारी हो गईं। अभी वे अम्मी के गम से उबरे ही नही थे कि, उनके करीबी दोस्त मशहूर शायर निसार अख्तर(जावेद अख्तर के पिता) और कृश्न चंदर भी परलोक सिधार गये।
अपनी माँ के बिना साहिर खुद को अनाथ महसूस करने लगे थे और अकेले रहना पसंद करने लगे थे। उन्होंने यश चोपड़ा से कहा कि अब लिखने में मजा नही आ रहा है। रात को वे घर से बाहर भी नही निकलते थे। इस बीच उन्हे दिल का दैरा भी पड़ चुका था। आखिरकार 25 अक्टूबर 1980 को ये महान गीतकार अपने जीवन की बेमिसाल शोहरत और साथ ही सारे विवाद को छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गया। लेकिन उनकी आत्मा यानि की उनके गीत आज भी अमर हैं।
मशहूर नगमे
कभी कभी का गीत मैं पल दो पल का शायर… हो या नया दौर फिल्म का गीत उड़े जब जब जुल्फें तेरी… , आज भी तरो ताजा हैं। उनके लोकप्रीय गानों की फेहरिस्त तो बहुत बड़ी है लेकिन कुछ गानों का जिक्र जरूरी है।
किसी पत्थर की मूरत से… , नीले गगन के तले…, चलो एकबार फिर से अजनबी बन जायें..,
फिल्म फिर सुबह होगी का गीत- वो सुबह कभी तो आयेगी… एवं आसमां पर है खुदा और जमीं पर हैं हम…, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बनाले… या प्यासा और नयादौर के गाने सभी एक से बढकर एक हैं। लोकप्रियता के आलम में प्यासा फिल्म ने तो एक नया अध्याय ही लिख दिया था। इस फिल्म को दुनिया की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार किया गया।
बेटी की विदाई पर एक पिता के दर्द और दिल से दिए आशीर्वाद को उन्होंने कुछ इस तरह से बयान किया, बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले.., ये गीत आज भी बेटी की बिदाई के वक्त सबकी आंखों को नम कर देता है।
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा…., जैसे गीतों से समाज में आपसी भाईचारे और इंसानियत का संदेश उन्होने अक्सर दिया। उनका लिखा हर गीत एक मानक है।
बरसात के रात की कव्वाली न तो कारवाँ की तलाश है, हास्य गीत- सर जो तेरा चकराये, देशप्रेम गीत- ये देश है वीर जवानों का, या दिल ही तो है का गीत, लागा चुनरी में दाग छुङाऊ कैसे, उनके गीतों की विविधता को दर्शाते हैं।
साहिर साहब के गीतों के साथ-साथ उनकी शेरो- शायरी भी अमर हैं। उनके कुछ शेर- ( Sahir Ludhanvi Shayari in Hindi )
वह अफसाना जिसे अंजाम तक, लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर, छोड़ना अच्छा…तुम मेरे लिए कोई इल्जाम न ढूँढ़ो
चाहा था तुम्हे, यही इल्जाम बहुत है…फिर न कीजे मेरी गुस्ताख निगाहों का गिला
देखिये अपने फिर प्यार से देखा मुझको…अभी जिन्दा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ खल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने…आज भी महफ़िलों में चाँद-चाँद लगा देते हैं।
एकबार किसी ने साहिर के लिये कहा था कि, किसी शहर के रंग में रंग जाना बहुत सहज होता है मगर साहिर ने बंम्बई को ही अपने रंग में रंग लिया। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि, साहिर ने सिर्फ मुम्बई को ही नही वरन विश्व के अनेक लोगों के दिलों में अपनी शायरी का रंग भर दिया जो आज भी बरकरार है। उनकी रुहानी शायरी से आज भी हर कोई सराबोर है।
ऐसे मशहूर गीतकार के जन्मदिन पर उनके मशहूर गीत को गुनगुनाते हुए कलम को विराम देते हैं ऐ मेरी जोहराजबीं तुझे मालूम नही…
sahyari of Sahir Ludhianvi
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से
Sahir Ludhianvi shayari
अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं
तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
बे पिए ही शराब से नफ़रत
ये जहालत नहीं तो फिर क्या है
तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूँडो
चाहा था तुम्हें इक यही इल्ज़ाम बहुत है
गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से
पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम
तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है
हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत
देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम
अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब
अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी
Sahir Ludhianvi shayari images
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ
मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ
वो तबस्सुम वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो
उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा
मैं ने शबनम को भी शोलों पे मचलते देखा
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मिरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊर आ जाता है
Sahir Ludhianvi shayari
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने
यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना
तिरी याद तो बन गई इक बहाना
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो
मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू
कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ
अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ
तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को
बर्बाद कर दिया तिरे दो दिन के प्यार ने
किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके
फिर न कीजे मिरी गुस्ताख़-निगाही का गिला
देखिए आप ने फिर प्यार से देखा मुझ को
shayari Sahir Ludhianvi
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई
वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें
कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता
वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ
लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा
मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम
बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने
जान-ए-तन्हा पे गुज़र जाएँ हज़ारों सदमे
आँख से अश्क रवाँ हों ये ज़रूरी तो नहीं
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है
two liner sahyari of Sahir Ludhianvi
दिल के मुआमले में नतीजे की फ़िक्र क्या
आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से
तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए’तिबार नहीं
तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन
न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा दिल ही तो है
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री
हर कूचा शो’ला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक-जेहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए
अँधेरी शब में भी तामीर-ए-आशियाँ न रुके
नहीं चराग़ तो क्या बर्क़ तो चमकती है
ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ’त राह पर लाई गई
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने
आँखें ही मिलाती हैं ज़माने में दिलों को
अंजान हैं हम तुम अगर अंजान हैं आँखें
two liner sahyari of Sahir Ludhianvi
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से
दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ
हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार
हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं
हम से अगर है तर्क-ए-तअल्लुक़ तो क्या हुआ
यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो
तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी
कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे
कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के
नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों
दुनिया मिरे अफ़्कार की दुनिया नहीं होती
ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूँ इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो
रंगों में तेरा अक्स ढला तू न ढल सकी
साँसों की आँच जिस्म की ख़ुश्बू न ढल सकी
two liner sahyari of Sahir
तरब-ज़ारों पे क्या गुज़री सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
दिल-ए-ज़िंदा मिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री
देखे थे हम ने जो वो हसीं ख़्वाब क्या हुए
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कैसे नादान हैं शो’लों को हवा देते हैं
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नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
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जंग क्या मसअलों का हल देगी
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बुलंद बाम-ए-हरम ही नहीं कुछ और भी है
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मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो
ऐ रहबरना-ए-क़ौम ख़ता-कार तुम भी हो
सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है
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सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो’ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ
जम्हूरियत-नवाज़ बशर-दोस्त अम्न-ख़्वाह
ख़ुद को जो ख़ुद दिए थे वो अलक़ाब क्या हुए
two liner sahyari of Sahir
हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
ख़ामोश मगर तब-ए-ख़ुद-आरा नहीं होती
इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के
वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो
ऐ आरज़ू के धुँदले ख़राबो जवाब दो
फिर किस की याद आई थी मुझ को पुकारने
इन्क़िलाबात-ए-दहर की बुनियाद
हक़ जो हक़दार तक नहीं पहुँचा
आओ इस तीरा-बख़्त दुनिया में
फ़िक्र की रौशनी को आम करें
जंग इफ़्लास और ग़ुलामी से
अम्न बेहतर निज़ाम की ख़ातिर
तुम ने सिर्फ़ चाहा है हम ने छू के देखे हैं
पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क़-पारों के
ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया ज़माने ने
कि अब हयात पे तेरा भी इख़्तियार नहीं
उधर भी ख़ाक उड़ी है इधर भी ख़ाक उड़ी
जहाँ जहाँ से बहारों के कारवाँ निकले
two liner sahyari of Sahir
बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले
किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम
ऐ रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही
तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
sahir two liner sahyari
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से
अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं
तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी
आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते
तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूँडो
चाहा था तुम्हें इक यही इल्ज़ाम बहुत है
गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से
पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम
तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है
हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत
देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम
अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब
अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ
मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ
वो तबस्सुम वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो
उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा
मैं ने शबनम को भी शोलों पे मचलते देखा
two liner sahyari of Sahir
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मिरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊर आ जाता है
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने
यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना
तिरी याद तो बन गई इक बहाना
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो
मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू
कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ
two liner sahyari of Sahir
अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ
तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को
बर्बाद कर दिया तिरे दो दिन के प्यार ने
किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके
फिर न कीजे मिरी गुस्ताख़-निगाही का गिला
देखिए आप ने फिर प्यार से देखा मुझ को
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई
वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें
कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता
वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ
लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा
two liner sahyari of Sahir
मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम
बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने
जान-ए-तन्हा पे गुज़र जाएँ हज़ारों सदमे
आँख से अश्क रवाँ हों ये ज़रूरी तो नहीं
दुल्हन बनी हुई हैं राहें
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है
दिल के मुआमले में नतीजे की फ़िक्र क्या
आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से
तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए’तिबार नहीं
तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन
न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा दिल ही तो है
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री
हर कूचा शो’ला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक-जेहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए
Sahir Ludhianvi shayari
अँधेरी शब में भी तामीर-ए-आशियाँ न रुके
नहीं चराग़ तो क्या बर्क़ तो चमकती है
ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ’त राह पर लाई गई
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से
दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ
हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार
हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं
हम से अगर है तर्क-ए-तअल्लुक़ तो क्या हुआ
यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो
तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी
कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे
कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के
sahyari of Sahir Ludhianvi
नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों
दुनिया मिरे अफ़्कार की दुनिया नहीं होती
ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूँ इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो
रंगों में तेरा अक्स ढला तू न ढल सकी
साँसों की आँच जिस्म की ख़ुश्बू न ढल सकी
तरब-ज़ारों पे क्या गुज़री सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
दिल-ए-ज़िंदा मिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री
आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
देखे थे हम ने जो वो हसीं ख़्वाब क्या हुए
जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं
कैसे नादान हैं शो’लों को हवा देते हैं
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
मिरी नदीम मोहब्बत की रिफ़अ’तों से न गिर
बुलंद बाम-ए-हरम ही नहीं कुछ और भी है
मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो
ऐ रहबरना-ए-क़ौम ख़ता-कार तुम भी हो
sahir shayari
इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा न हो धड़कन रुक जाए
सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है
सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो’ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ
हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
ख़ामोश मगर तब-ए-ख़ुद-आरा नहीं होती
इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के
वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो
ऐ आरज़ू के धुँदले ख़राबो जवाब दो
फिर किस की याद आई थी मुझ को पुकारने
इन्क़िलाबात-ए-दहर की बुनियाद
हक़ जो हक़दार तक नहीं पहुँचा
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा, दिल ही तो है
बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
ख़ूँ बहाना ही क्या ज़रूरी है
क्या मोल लग रहा है शहीदों के ख़ून का
मरते थे जिन पे हम वो सज़ा-याब क्या हुए