Faiz Ahmed ki shayari | biography of faiz’s shayari

 Faiz Ahmed ki shayari

Biography of Faiz ahmed faiz | फैज की संक्षिप्त जीवनी | faiz ahmed ki shayari with images download |biograpy of faiz ahmed in hindi

Faiz was one of the most popular Urdu poets. His poetry gave a new style and a new name to Urdu Ghazals and Nazms. Faiz was one of the most popular poets of Urdu. His poetry gave a new style and a new name to Urdu Ghazals and Nazms. Faiz Ahmed Faiz (Urdu name: فیض احمد فیض) was born on February 3, 1911 in Kasba Qadir Khan near Sialkot in undivided India. His father’s name was Chaudhary Sultan Muhammad Khan and mother’s name was Sultan Fatima.

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Faiz was one of the most famous poets of the Indian subcontinent. Faiz was a poet as well as a journalist, lyricist and activist. He gave birth to such a genre in Urdu, in which the tone was of Ghazal. But it was also based on the social and political issues of his time.
Faiz was one of the most famous poets of the Indian subcontinent. Faiz was a poet as well as a journalist, lyricist and activist. He gave birth to such a genre in Urdu, in which the tone was of Ghazal. But it was also based on the social and political issues of his time.

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The Pakistani government sent him to jail in 1951 and 1958 and tried hard to suppress his voice. During the Indo-Pakistani wars in 1965 and 1971, he refused to write poems for the country to encourage the Pakistani army, which angered the rulers. Zia-ul-Haq banned Faiz’s poetry from being read in public forums. Despite this, on Faiz’s first death anniversary in 1985, thousands of people gathered in Lahore to pay tribute to him. Defying the orders of dictator Zia-ul-Haq, singer Iqbal Bano presented Faiz’s nazms and ghazals in front of this huge gathering.
Faiz became the first Asian poet to receive the Lenin Peace Prize in 1963. He was also nominated for the Nobel Prize.

फैज उर्दू के सबसे अधिक लोकप्रिय शायरों में एक थे। उनकी शायरी ने उर्दू गजलों और नज्मों को एक नया अंदाज और एक नया नाम दिया।फैज उर्दू के सबसे अधिक लोकप्रिय शायरों में एक थे। उनकी शायरी ने उर्दू गजलों और नज्मों को एक नया अंदाज और एक नया नाम दिया। फैज अहमद फैज (उर्दू नामः فیض احمد فیض) का जन्म 3 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट के नजदीक कस्बा कादिर खां में हुआ । उनके पिता का नाम चौधरी सुलतान मुहम्मद खां और माँ का नाम सुल्तान फातिमा था।
फैज भारतीय उप महाद्वीप के सबसे मशहोर शायरों में एक थे । फैज, शायर के साथ-साथ पत्रकार, गीतकार और एक्टिविस्ट भी थे।  उन्होंने उर्दू में एक ऐसी विधा को जन्म दिया, जिसमें लहजा तो गजल का था । लेकिन वो उनके दौर के सामाजिक और राजनीतिक विषय पर भी आधारित थी।
फैज भारतीय उप महाद्वीप के सबसे मशहोर शायरों में एक थे । फैज, शायर के साथ-साथ पत्रकार, गीतकार और एक्टिविस्ट भी थे।  उन्होंने उर्दू में एक ऐसी विधा को जन्म दिया, जिसमें लहजा तो गजल का था । लेकिन वो उनके दौर के सामाजिक और राजनीतिक विषय पर भी आधारित थी।

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            पाकिस्तानी हुकूमत ने 1951 और 1958 में उन्हें जेल भेजा और उनकी आवाज दबाने की भरपूर कोशिश की। 1965 और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उन्होंने पाकिस्तानी फौज की हौसला अफजाई के लिए वतन के लिए नज्में लिखने से इनकार कर दिया, जिससे हुक्मरान उनसे नाराज होते चले गए।  जिया उल हक ने फैज की शायरी को सार्वजनिक मंचों पर पढ़े जाने पर रोक लगा दी। इसके बावजूद, 1985 में फैज की पहली बरसी पर लाहौर में हजारों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए।  तानाशाह जिया उल हक के आदेश को धता बताते हुए गायिका इकबाल बानो ने इस विशाल जनसमूह के सामने फैज की नज्मों और गजलों की प्रस्तुति दी। 
फैज 1963 में लेनिन शांति पुरस्कार हासिल करने वाले पहले एशियाई कवि बने।  उन्हें नोबल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था । 

 

नाम  :  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

व्यवसाय : उर्दू के नामचीन शायर

                                          जन्म एवं स्थान : 13 फरवरी 1911 में, सियालकोट (अविभाजित पंजाब) में

                    मृत्यु एवं स्थान : 20 नवम्बर 1984, लाहौर (पाकिस्तान) में

                       शिक्षा : अंग्रेजी और अरबी साहित्य में एमए

Faiz ahmed shayri

       

 

है वही बात यूँ भी और यूँ भी
       तुम सितम या करम की बात करो। 

                           

                   अब के ख़िज़ाँ ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गए
                            जब मौसम-ए-गुल हर फेरे में आ आ के दोबारा गुज़रे था

                                   

            कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
                सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी

                             

                                    कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे
                                  कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे

                         

                              गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा
                             गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

                                 

                                      चलो ‘फ़ैज़’ दिल जलाएँ करें फिर से अर्ज़-ए-जानाँ
                                   वो सुख़न जो लब तक आए पे सवाल तक न पहुँचे

                                             

                                उतरे थे कभी ‘फ़ैज़’ वो आईना-ए-दिल में
                                आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का

                                       

                                 क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
                                      कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

                                   

                     वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
                          वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

                                   

                          हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी
                        जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे

                                     

                              न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ
                             इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं 

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 इक तिरी दीद छिन गई मुझ से
वर्ना दुनिया में क्या नहीं बाक़ी

                                   

              अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें
                     रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम ”

 

ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू
सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया 

       

हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ
       दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह 

 

ज़ब्त का अहद भी है शौक़ का पैमान भी है
अहद-ओ-पैमाँ से गुज़र जाने को जी चाहता है

 

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं

 

मेरी क़िस्मत से खेलने वाले
मुझ को क़िस्मत से बे-ख़बर कर दे 

 

जो कुछ भी बन न पड़ा ‘फ़ैज़’ लुट के यारों से
तो रहज़नों से दुआ-ओ-सलाम होती रही 

 

हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं

 

 और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

 

दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
         लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

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उतरे थे कभी ‘फ़ैज़’ वो आईना-ए-दिल में
         आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का

 

 कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
         आज तुम याद बे-हिसाब आए

 

 इक गुल के मुरझाने पर क्या गुलशन में कोहराम मचा
         इक चेहरा कुम्हला जाने से कितने दिल नाशाद हुए

 

अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें
         दिल ठहरे तो दर्द सुनाएँ दर्द थमे तो बात करें

 

 आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
         इस के बाद आए जो अज़ाब आए

 

और क्या देखने को बाक़ी है
         आप से दिल लगा के देख लिया

 

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
          वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

 

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
          किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

 

 वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
           वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

 

 नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
           नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

 

 गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
          चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

 

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान
           भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे

faiz ahmed ki shayari

 

 ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
            हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं

 

 इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक
            इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे

 

न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ
            इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं

 

मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं
            जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

 

 हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे
            जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे 

 

 दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
            तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

 

 ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
           विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं

 

इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
           देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

 

 तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
             अपने कुछ और भी सहारे थे

 

 न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है
         अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

 

 दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के 
          वो जा रहा है कोई शब-ए-गम गुज़ार के 

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HARNEET KAUR (Ishq Kalam):