Manto Saadaat hasan story “Phubha Bai”

Manto Saadaat hasan story “Phubha Bai”

फ़ूभा बाई सआदत हसन मंटो

स्टोरीलाइन

यह एक औरत के निष्ठा, त्याग और बलिदान की कहानी है। फ़ोभा बाई बंबई में रह कर पेशा करती थी, हर महीने जयपुर अपने बेटे को दो सौ रुपये भेजती थी और हर तीन महीने पर उससे मिलने जाती थी। बद-क़िस्मती से वो बेटा मर जाता है और फ़ोभा बाई का पूरा वजूद तबाह हो जाता है।

हैदराबाद से शहाब आया तो उसने बम्बई सेंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा, “देखो भाई, आज शाम को वो मुआ’मला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।”

हनीफ़ को मालूम था कि वो मुआ’मला क्या है। चुनांचे शाम को उसने टैक्सी ली, शहाब को साथ लिया। ग्रांट रोड के नाके पर एक दलाल को बुलाया और उससे कहा, “मेरे दोस्त हैदराबाद से आए हैं। इनके लिए अच्छी छोकरी चाहिए।”

दलाल ने अपने कान से उड़सी हुई बीड़ी निकाली और उसको होंटों में दबा कर कहा, “दक्कनी चलेगी?”

हनीफ़ ने शहाब की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा। शहाब ने कहा, “नहीं भाई… मुझे कोई मुसलमान चाहिए।”

“मुसलमान?” दलाल ने बीड़ी को चूसा, “चलिए।” और ये कह कर वो टैक्सी की अगली नशिस्त पर बैठ गया। ड्राईवर से उसने कुछ कहा, टैक्सी स्टार्ट हुई और मुख़्तलिफ़ बाज़ारों से होती हुई फ़ोरजट स्ट्रीट की साथ वाली गली में दाख़िल हुई, ये गली एक पहाड़ी पर थी। बहुत ऊँचान थी। ड्राईवर ने गाड़ी को फ़र्स्ट गेयर में डाला। हनीफ़ को ऐसा महसूस हुआ कि रास्ते में टैक्सी रुक कर वापस चलना शुरू कर देगी। मगर ऐसा न हुआ, दलाल ने ड्राईवर को ऊँचान के ऐ’न आख़िरी सिरे पर जहां चौक सा बना था, रुकने के लिए कहा।

हनीफ़ कभी इस तरफ़ नहीं आया था। ऊंची पहाड़ी थी जिसके दाएं तरफ़ एक दम ढलान थी। जिस बिल्डिंग में दलाल दाख़िल हुआ उसकी तरफ़ दो मंज़िलें थीं, हालाँकि दूसरी तरफ़ की बिल्डिंग सबकी सब चार मंज़िला थीं। हनीफ़ को बाद में मालूम हुआ कि ढलान के बाइ’स इस बिल्डिंग की तीन मंज़िलें नीचे थीं जहां लिफ़्ट जाती थी।

शहाब और हनीफ़ दोनों ख़ामोश बैठे रहे। उन्होंने कोई बात न की। रास्ते में दलाल ने उस लड़की की बहुत तारीफ़ की थी जिसको लाने वो उस बिल्डिंग में गया था। उसने कहा था, “बड़े अच्छे ख़ानदान की लड़की है। स्पेशल तौर पर आपके लिए निकाल रहा हूँ।”

दोनों सोच रहे थे, ये लड़की कैसी होगी जो स्पेशल तौर पर निकाली जा रही है।

थोड़ी देर के बाद दलाल नुमूदार हुआ, वो अकेला था। ड्राईवर से उसने कहा, ‘गाड़ी वापस करो।” ये कह कर वो अगली सीट पर बैठ गया। गाड़ी एक चक्कर लेकर मुड़ी। तीन चार बिल्डिंग छोड़कर दलाल ने ड्राईवर से कहा, “रोक लो।” फिर हनीफ़ से मुख़ातिब हुआ, “आ रही है… पूछ रही थी, कैसे आदमी हैं?” मैंने कहा, “नंबर वन।”

दस-पंद्रह मिनट के बाद एक दम टैक्सी का दरवाज़ा खुला और एक औरत हनीफ़ के साथ बैठ गई। रात का वक़्त था। गली में रोशनी कम थी। इसलिए शहाब और हनीफ़ दोनों उसको अच्छी तरह न देख सके। सीट पर बैठते ही उस,ने कहा “चलो।”

टैक्सी तेज़ी से नीचे उतरने लगी।

हनीफ़ के पास कोई ऐसी जगह न थी जहां कोई मुआ’मला हो सके, चुनांचे जैसा तय पाया था, वो डाक्टर ख़ां साहब के हाँ चले गए। वो मिलिट्री हॉस्पीटल में मुतअय्यन था और उसको वहीं दो कमरे मिले हुए थे। शहाब ने बम्बई आते ही उसको फ़ोन कर दिया था कि वो हनीफ़ के साथ रात को उसके पास आएगा और मुआ’मला साथ होगा, चुनांचे टैक्सी मिलिट्री हस्पताल में पहुंची। दलाल सौ रुपया लेकर ग्रांट रोड पर उतर गया।

रास्ते में भी शहाब और हनीफ़ उस औरत को अच्छी तरह न देख सके। कोई ख़ास बातें भी न हुईं। शहाब ने जब उससे अपने ठेट हैदराबादी लहजे में पूछा, “आपका इस्म-ए-गिरामी?” तो उस औरत ने कहा, “फ़ोभा बाई।”

“फ़ोभा बाई?” हनीफ़ सोचता रह गया कि ये कैसा नाम है।

डाक्टर ख़ान उनका इंतिज़ार कर रहा था। सबसे पहले शहाब कमरे में दाख़िल हुआ। दोनों गले मिले और ख़ूब एक दूसरे को गालियां दीं।

डाक्टर ख़ान ने जब एक जवान औरत को दरवाज़े में देखा तो एक दम ख़ामोश हो गया, “आईए, आईए।” उसने अपने सीने पर हाथ रखा। “डाक्टर ख़ान… आप?” उसने शहाब की तरफ़ देखा।

शहाब ने उस औरत की तरफ़ देखा। औरत ने कहा, “फ़ोभा बाई।”

डाक्टर ख़ान ने बढ़ कर उससे हाथ मिलाया, “आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई।”

फ़ोभा बाई मुस्कुराई, “मुझे भी ख़ुफ़ी हुई।”

शहाब और हनीफ़ ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। डाक्टर ख़ान ने दरवाज़ा बंद कर दिया और अपने दोस्तों से कहा, “आप दूसरे कमरे में चले जाईए… मुझे कुछ काम करना है।”

शहाब ने जब फ़ोभा बाई से कहा, “चलिए।” तो उसने डाक्टर ख़ान का हाथ पकड़ लिया, “नहीं आप भी तशरीफ़ लाईए।”

“आप तशरीफ़ ले चलिए मैं आता हूँ।” ये कह कर डाक्टर ख़ान ने अपना हाथ छुड़ा लिया।

शहाब और हनीफ़ फ़ोभा बाई को अंदर ले गए। थोड़ी देर गुफ़्तगू हुई तो उसको मालूम हुआ कि उसकी ज़बान मोटी थी। वो शीन और सीन अदा नहीं कर सकती थी। इसके बदले उसके मुँह से फ़े निकलती थी। उसका नाम इस लिहाज़ से शोभा बाई था। लेकिन कुछ देर और बातें करने के बाद उन को पता चला कि शोभा उसका असली नाम नहीं था। वो मुसलमान थी, जयपुर उसका वतन था, जहां से वो चार साल हुए भाग कर बंबई चली आई थी। इससे ज़्यादा उसने अपने हालात न बताए।

मामूली शक्ल-ओ-सूरत थी। आँखें बड़ी नहीं थीं। नाक भी ख़ुशवज़ा थी। बालाई होंट के ऐ’न दरमियान एक छोटे से ज़ख़्म का निशान था। जब वो बात करती तो ये निशान थोड़ा सा फैल जाता। गले में उसने जड़ाऊ नेकलस पहना हुआ था। दोनों हाथों में सोने की चूड़ियां थीं।

बहुत ही बातूनी औरत थी। बैठते ही उसने इधर उधर की बातें शुरू करदीं। हनीफ़ और शहाब सिर्फ़ हूँ हाँ करते रहे। फिर उसने उनके बारे में पूछना शुरू किया कि “वो क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं, क्या उम्र है, फ़ादी फ़िदा हैं या ग़ैर फ़ादी फ़िदा। हनीफ़ इतना दुबला क्यों है। फ़हाब ने दो मस्नूई दाँत क्यों लगवाए हैं। गोफ़त ख़ौरा था तो उसका ईलाज डाक्टर ख़ान से क्यों न कराया। फ़रमाता क्यों है। फ़े’र क्यों नहीं गाता?”

शहाब ने उसे कुछ शे’र सुनाए। शोभा ने बड़े ज़ोरों की दाद दी। शहाब ने ये शे’र सुनाया,

खेतों को दे लो पानी अब बह रही है गंगा

कुछ कर लो नौजवानो उठती जवानियां हैं

तो शोभा उछल पड़ी, “वाह जनाब, साहब वाह, बहुत अच्छा फ़े’रहै… उठती जवानियां हैं। वाह वा!”

इस के बाद शोभा ने बेशुमार शे’र सुनाए, बिल्कुल बेजोड़े बेतुके जिनका सर था न पैर। शे’र सुना कर उसने शहाब से कहा, “फ़हाब साहब… मज़ा आया आपको।”

शहाब ने जवाब दिया, “बहुत।”

शोभा ने शरमा कर कहा, “ये फ़े’र मेरे थे… मुझे फ़ायरी का बहुत फ़ौक़ है।”

शहाब और हनीफ़ दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और मुस्कुरा दिए। इसके बाद सिर्फ़ एक सही शे’र शोभा ने सुनाया,

कभी तो मरे दर्द-ए-दिल की ख़बर ले

मिरे दर्द से आफ़ना होने वाले

ये शे’र हनीफ़ कई बार सुन चुका था और शायद पढ़ भी चुका था। मगर शोभा ने कहा, “हनीफ़ साहिब ये फ़े’र भी मेरा है।”

हनीफ़ ने ख़ूब दाद दी। “माफ़ा अलला आप तो कमाल करती हैं।”

शोभा चौंकी, “माफ़ कीजिएगा, मेरी ज़बान में तो कुछ ख़राबी है लेकिन आपने क्यों माफ़ा अल्लाह के बदले माफ़ा अल्लाह कहा?”

हनीफ़ और शहाब दोनों बेइख़्तियार हंस पड़े। शोभा भी हँसने लगी। इतने में डाक्टर ख़ान आगया। उसने अंदर दाख़िल होते ही शोभा से कहा, “क्यों जनाब, इतनी हंसी किस बात पर आ रही है?”

ज़्यादा हँसने के बाइ’स शोभा की आँखों में आँसू आगए थे। उसने रूमाल से उनको पोंछा और डाक्टर ख़ान से कहा, “एक बात ऐसी हुई कि हम सब हंफ़ पड़े।”

डाक्टर ख़ान ने भी हंसना शुरू कर दिया।

शोभा ने उससे कहा, “आईए बैठिए” चारपाई के एक तरफ़ सरक कर उस ने डाक्टर ख़ान का हाथ पकड़ा और उसे अपने पास बिठा लिया।

फिर शे’र-ओ-शायरी हो गई। शोभा ने लंबी लंबी चार बेतुकी ग़ज़लें सुनाईं। सबने दाद दी, शहाब उकता गया। वो मुआ’मला चाहता था। हनीफ़ उसके बदले हुए तेवर देख कर भाँप गया। चुनांचे उसने शहाब से कहा, “अच्छा भई, में रुख़सत चाहता हूँ, इंशाअल्लाह कल सुबह मुलाक़ात होगी।”

वो ये कह कर कुर्सी पर से उठा मगर शोभा ने उसका हाथ पकड़ लिया, “नहीं, आप नहीं जा सकते।”

हनीफ़ ने जवाब दिया, “मैं मा’ज़रत चाहता हूँ। बीवी मेरा इंतिज़ार कर रही होगी।”

“ओह! लेकिन नहीं। आप थोड़ी देर और ज़रूर बैठें। अभी तो सिर्फ़ ग्यारह बजे हैं।” शोभा ने इसरार किया।

शहाब ने एक जमाई ली, “बहुत वक़्त हो गया है।”

शोभा ने मुस्कुरा कर शहाब की तरफ़ देखा, “मैं फ़ारी रात आप पाफ़ हूँ।”शहाब का तकद्दुर दूर होगया।

हनीफ़ थोड़ी देर बैठा, फिर रुख़सत ली और चला गया। दूसरे रोज़ सुबह नौ बजे के क़रीब शहाब आया और रात की बात सुनाने लगा, “अ’जीब-ओ-ग़रीब थी थी ये फ़ोभा बाई। पेट पर बालिशत भर ऑप्रेशन का निशान था, कहती थी कि वो एक लकड़ी वाले सेठ की दाश्ता थी। उसने एक फ़िल्म कंपनी खोल दी थी, उसके चेकों पर दस्तख़त शोभा ही के होते थे। मोटर थी जो अब तक मौजूद है, नौकर-चाकर थे। लकड़ी वाला सेठ उससे बेहद मोहब्बत करता था। उसके पेट का ऑप्रेशन हुआ तो उसने एक हज़ार रुपया यतीम ख़ाने को दिये।”

हनीफ़ ने पूछा, “ये लकड़ी वाला सेठ अब कहाँ है?”

शहाब ने जवाब दिया, “दूसरी दुनिया में टाल खोले बैठा है। औरत ख़ूब थी ये फ़ोभा बाई, मैं दूसरे कमरे में सो गया। तो वो डाक्टर ख़ान के साथ लेट गई। सुबह पाँच बजे ख़ान ने उससे कहा कि अब जाओ। शोभा ने कहा, अच्छा मैं जाती हूँ, लेकिन ये मेरे ज़ेवर तुम अपने पास रख लो। मैं अकेली इन के साथ बाहर नहीं निकलती।”

हनीफ़ ने पूछा, “डाक्टर ने ज़ेवर रख लिये?”

शहाब ने सर हिलाया, “हाँ, पहले तो उसका ख़याल था कि नक़ली हैं। मगर दिन की रोशनी में जब उसने देखा तो असली थे।”

“और वो चली गई?”

“हाँ चली गई, ये कह कर कि वो किसी रोज़ आकर अपने ज़ेवर वापस ले जाएगी।”

“ये तुमने बड़े अचंभे की बात सुनाई।”

“ख़ुदा की क़सम हक़ीक़त है।” शहाब ने सिगरेट सुलगाया, “इसीलिए तो मैंने कहा ये फ़ोभा बाई अ’जीब-ओ-ग़रीब औरत है।”

हनीफ़ ने पूछा, “वैसे कैसी औरत थी?”

शहाब झेंप सा गया, “भई मुझे ऐसे मुआ’मलों का कुछ पता नहीं… ये तुम ख़ान से पूछना। वो एक्सपर्ट है।”

शाम को दोनों ख़ान से मिले। ज़ेवर उसके पास महफ़ूज़ थे। शोभा लेने नहीं आई थी। ख़ान ने बताया, “मेरा ख़्याल है, शोभा किसी दिमाग़ी सदमे का शिकार है।”

शहाब ने पूछा, “तुम्हारा मतलब है पागल है?”

“ख़ान ने कहा, “नहीं, पागल नहीं है लेकिन उसका दिमाग़ यक़ीनन नॉरमल नहीं है। बेहद मुख़लिस औरत है। एक लड़का है उसका जयपुर में, उसको बराबर दो सौ रुपये माहवार भेजती है। हर तीसरे महीने उससे मिलने जाती है। जयपुर पहुंचते ही बुर्क़ा ओढ़ लेती है, वहां उसे पर्दा करना पड़ता है।”

हनीफ़ ने कहा, “ये तुमने कैसे समझा कि उसका दिमाग़ नॉरमल नहीं।”

ख़ान ने जवाब दिया, “भई, मेरा ख़याल है, नॉरमल औरत होती तो अपने डेढ़ दो हज़ार के ज़ेवर एक अजनबी के पास क्यों छोड़ जाती… इसके इलावा उसको मोरफ़िया के इंजेक्शन लेने की आदत है।”

शहाब ने पूछा, “नशा होता है एक क़िस्म का?”

ख़ान ने जवाब दिया, “बहुत ही ख़तरनाक क़िस्म का, शराब से भी बदतर!”

“इसकी आदत कैसे पड़ी उसे?” शहाब ने मेज़ पर से पेपर वेट उठा कर दवात पर रख दिया।

“ऑप्रेशन हुआ तो बिगड़ गया। दर्द शिद्दत का था। उसका एहसास कम करने के लिए डाक्टर मोरफ़िया के इंजेक्शन देते रहे। तक़रीबन दो महीने तक… बस आदत होगई।”डाक्टर ख़ान ने मोरफ़िया और इसके ख़तरनाक असरात पर एक लेक्चर शुरू कर दिया।

एक हफ़्ता हो गया, शोभा न आई। शहाब वापस हैदराबाद चला गया। डाक्टर ख़ान ज़ेवर लेकर हनीफ़ के पास आया कि चलो दे आएं।

दोनों ने ग्रांट रोड के नाके पर उस दलाल को बहुत तलाश किया जो शहाब और हनीफ़ को शोभा के मकान के पास ले गया था मगर वो न मिला।

हनीफ़ को इतना मालूम था कि गली कौन सी है और बिल्डिंग कौन सी है… डाक्टर ख़ान ने कहा, “ठीक है। हम पता लगा लेंगे। ये ज़ेवर मैं अपने पास नहीं रखना चाहता। चोरी होगए तो क्या करूंगा। वो तो अ’जीब बेपर्वा औरत है।”

दोनों टैक्सी में वहां पहुंच गए। डाक्टर ख़ान को हनीफ़ ने बिल्डिंग बता दी और कहा, “मैं नहीं जाऊंगा भाई, तुम तलाश करो उसे।”

डाक्टर ख़ान अकेला उस बिल्डिंग में दाख़िल हुआ तो एक दो आदमियों से पूछा मगर शोभा का कुछ पता न चला। नीचे से लिफ़्ट ऊपर को आई तो होटल का छोकरा प्यालियां उठाए बाहर निकला। ख़ान ने उससे पूछा तो उसने बताया कि “सब से निचली मंज़िल के आख़िरी फ़्लैट पर चले जाओ।”

लिफ़्ट के ज़रिये से ख़ान नीचे पहुंचा आख़िरी फ़्लैट की घंटी बजाई। थोड़ी देर के बाद एक बुढ़िया औरत ने दरवाज़ा खोला। ख़ान ने उससे पूछा, “शोभा बाई हैं?”

बुढ़िया ने जवाब दिया, “हाँ हैं।”

ख़ान ने कहा, “जाओ उससे कहो डाक्टर ख़ान आए हैं।”

अंदर से शोभा की आवाज़ आई, “आईए डाक्टर साहब आईए।”

डाक्टर ख़ान अंदर दाख़िल हुआ। छोटा सा ड्राइंगरूम था, चमकीले फ़र्नीचर से भरा हुआ। फ़र्श पर क़ालीन बिछे हुए थे। बुढ़िया दूसरे कमरे में चली गई। फ़ौरन ही शोभा की आवाज़ आई, “डाक्टर साहब अंदर आ जाईए, मैं बाहर नहीं आसकती।”

डाक्टर ख़ान दूसरे कमरे में दाख़िल हुआ। शोभा चादर ओढ़े लेटी थी। उसने उससे पूछा, “क्या बात है?”

शोभा मुस्कुराई, “कुछ नहीं डाक्टर साहिब, “तेल मालिश करा रही थी।”

डाक्टर पलंग के पास कुर्सी पर बैठ गया। जेब से रूमाल निकाला जिसमें ज़ेवर बंधे थे, खोल कर उसे पलंग पर रख दिया, “कब तक मैं तुम्हारे इन ज़ेवरों की हिफ़ाज़त करता रहूँगा। तुम ऐसी गईं कि फिर उधर का रुख़ तक न किया।”

शोभा हंसी, “मुझे बहुत काम था, लेकिन आपने क्यों तकलीफ़ की, मैं ख़ुद आके ले जाती।” फिर उस ने बुढ़िया से कहा, “चाय मँगाओ, डाक्टर के लिए।”

डाक्टर ने कहा, “नहीं मुझे अब जाना है।”

“कहाँ?”

“हस्पताल।”

“टैक्सी में आए हैं आप?”

“हाँ।”

“बाहर खड़ी है।”

डाक्टर ने सर के इशारे से ‘हाँ ‘की।

“तो आप चलिए मैं आती हूँ।” ये कह कर उसने ज़ेवर तकिए के नीचे रख दिए और रूमाल डाक्टर ख़ान को दे दिया। डाक्टर ख़ान हनीफ़ के पास पहुंचा तो उसने पूछा, “मिल गई?”

डाक्टर मुस्कुराया, “मिल गई, आ रही है!”

पंद्रह-बीस मिनट के बाद शोभा ने तेज़ी से टैक्सी का दरवाज़ा खोला और अंदर बैठ गई।

डाक्टर ख़ान के कमरे में देर तक फ़ुज़ूल क़िस्म की शे’र बाज़ी होती रही। हिज्र-ओ-विसाल और इश्क़-ओ-मोहब्बत के बेशुमार आ’मियाना अशआ’र शोभा ने सुनाए और उन्हें अपने नाम से मंसूब किया। डाक्टर ख़ान और हनीफ़ ने ख़ूब दाद दी। शोभा बहुत ख़ुश हुई और कहने लगी, “याक़ूब फ़ेठ घंटों मुझ से फॉर फ़ुना करते थे।”

याक़ूब फ़ेठ वो लकड़ी वाला सेठ था जिसने शोभा के लिए एक फ़िल्म कंपनी खोली थी। डाक्टर ख़ान और हनीफ़ हंस पड़े। शोभा भी हँसने लगी।

डाक्टर ख़ान और शोभा की दोस्ती हो गई। शुरू शुरू में तो वो हफ़्ते में दो बार आती थी। अब क़रीब क़रीब हर रोज़ आने लगी। रात आती, सुबह सवेरे चली जाती। शाम को बिला नागा मोरफ़िया का इंजेक्शन लेती। डाक्टर इंजेक्शन लगाने से पहले उसके बाज़ू पर बेहिस करने वाली दवा लगा देता था ये ठंडी ठंडी चीज़ उसे बहुत पसंद थी।

तीन महीने गुज़रे तो शोभा जयपुर जाने के लिए तैयार हुई। मोटर अपनी डाक्टर ख़ान के हवाले कर दी कि वो उसका ध्यान रखे। डाक्टर उसे स्टेशन पर छोड़ने गया। देर तक गाड़ी में एक दूसरे से बातें करते रहे। जब गाड़ी चलने लगी तो शोभा ने एक दम डाक्टर का हाथ पकड़ कर कहा, “मुझे क्यों एक दम ऐफ़ा लगा है कि कुछ होने वाला है।”

डाक्टर ख़ान ने कहा, “क्या होने वाला है।”

शोभा के चेहरे से वहशत बरसने लगी, मालूम नहीं, “मेरा दिल बैठा जा रहा है।”

डाक्टर ख़ान ने उसे दम दिलासा दिया गाड़ी चल दी। दूर तक शोभा का हाथ हिलता रहा।

जयपुर से शोभा के दो ख़त आए जिनसे सिर्फ़ इतना पता चलता था कि वो ख़ैरियत से पहुंच गई है। जब वापस आएगी तो उसके लिए बहुत से तोहफ़े लाएगी। इसके बाद एक कार्ड आया जिसमें ये लिखा था, “मेरी अंधेरी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक दीया था वो कल ख़ुदा ने बुझा दिया… भला हो उसका?”

हनीफ़ ने ये अलफ़ाज़ पढ़े तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। भला हो उसका में “बेपनाह ग़म था।”

बहुत अर्सा गुज़र गया, शोभा का कोई ख़त न आया। पूरा एक बरस बीत गया। डाक्टर ख़ान को उस का कोई पता न चला। शोभा अपनी मोटर उसके हवाले कर गई थी। उस बिल्डिंग में गया जिसकी सब से निचली मंज़िल में वो रहा करती थी। फ़्लैट पर कोई और ही क़ाबिज़ था, एक दलाल किस्म का आदमी। डाक्टर ख़ान आख़िर थक हार कर ख़ामोश होगया। मोटर उसने एक गेराज में रखवा दी।

एक दिन हनीफ़ घबराया हुआ हस्पताल आया उसका चेहरा ज़र्द था। डाक्टर ख़ान को ड्यूटी से हटा कर वो एक तरफ़ ले गया और उससे कहा, “मैंने आज शोभा को देखा।”

डाक्टर ख़ान ने हनीफ़ का बाज़ू पकड़ कर एक दम पूछा, “कहाँ?”

“चौपाटी पर… मैं उसे बिल्कुल न पहचानता क्योंकि वो महज़ हड्डियों का ढांचा थी।”

डाक्टर ख़ान खोखली आवाज़ में बोला, “हड्डियों का ढांचा?”

हनीफ़ ने सर्द आह भरी, “शोभा नहीं थी, उसका साया था। आँखें अंदर को धंसी हुईं। बाल परेशान और गर्द आलूद। यूं चलती थी कि अपने आपको घसीट रही है। मेरे पास आई और कहा, मुझे पाँच रुपये दो… मैंने उसको न पहचाना। पूछा, क्या करोगी पाँच रुपये लेकर? बोली मोरफ़िया का टीका लूंगी।

एक दम मैंने ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा। उसके बालाई होंट पर ज़ख़्म का निशान मौजूद था, मैं चिल्लाया, “शोभा…”

उसने थकी हुई वीरान आँखों से मुझे देखा और पूछा, “कौन हो तुम?”

मैंने कहा, “हनीफ़…”

उस ने जवाब दिया, “मैं किसी हनीफ़ को नहीं जानती।”

मैंने तुम्हारा ज़िक्र किया कि तुमने उसे बहुत तलाश किया, बहुत ढ़ूंडा। ये सुन कर उसके होंटों पर ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट पैदा हुई और कहने लगी, उससे कहना, मत ढ़ूंढ़े मुझे। मेरी तरफ़ देखो, मैं इतनी मुद्दत से अपना खोया हुआ लाल ढूंढती फिर रही हूँ… ये ढूंढना बिल्कुल बेकार है, कुछ नहीं मिलता… लाओ पाँच रुपये दो मुझे। मैंने उसे पाँच रुपय दिए और कहा, अपनी मोटर तो ले जाओ डाक्टर ख़ान से।” वो क़हक़हे लगाती हुई चली गई।

ख़ान ने पूछा, “कहाँ?”

हनीफ़ ने जवाब दिया, “मालूम नहीं… किसी डाक्टर के पास गई होगी।”

डाक्टर ख़ान ने बहुत तलाश किया मगर शोभा का कुछ पता न चला।

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HARNEET KAUR (Ishq Kalam):

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